क्या वेब पत्रकारिता को सिर्फ़ लिंक बनाने तक सीमित! जिम्मेदारी किसकी?
क्या वेब पत्रकारिता को सिर्फ़ लिंक बनाने तक सीमित! जिम्मेदारी किसकी?
वेब पत्रकारिता की मौन पीड़ा: क्या लिंक भेजने भर से बनती है पहचान?
आज की पत्रकारिता में वेब मीडिया एक सशक्त, सुलभ और जनसंवेदनशील माध्यम बनकर उभरा है। गांव-ढाणी से लेकर महानगरों तक, हर ख़बर को मिनटों में आमजन तक पहुँचाने का ज़िम्मा इन वेब पत्रकारों ने अपने कंधों पर उठाया है। फिर भी यह एक कड़वा सच है कि अथक परिश्रम, निष्ठा और सतत योगदान के बावजूद वेब पत्रकारों को न तो सरकारी मंचों पर मान-सम्मान मिलता है, न किसी कार्यक्रम में आमंत्रण। वंदे गंगा जल सरंक्षण जल अभियान प्रकल्प के अंतर्गत बज्जू व कोलायत क्षेत्र के जल स्रोतों की हालिया मीडिया विजिट इसका ताज़ा उदाहरण है, जहां सूचना जनसंपर्क विभाग ने प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के अधिस्वीकृत पत्रकारों को ही अपनी चिर परिचित अंदाज मे प्रमुखता दी, लेकिन वेब मीडिया के पत्रकारों के नाम पर कन्नी काट गए। और ऐसा कोई चेहरा उनके साथ दिखाई नहीं दिया जो वेब मीडिया का हो, शायद वेब जर्नलिज़म करने वाले पत्रकारों को इंसान नहीं, लिंक बनाने वाली मशीन समझ रहे है और स्थानीय स्तर पर ही रहकर बात करे तो बहुत से नवांकुर साथी शायद जाने अनजाने यही कर रहे ही, लेकिन जब गंभीरता से इस मंच से काम करने के लिए वेब पत्रकारिता की बात करते हैं, तो यह बात अक्सर अनकही रह जाती है कि इस क्षेत्र में कार्य कर रहे पत्रकारों की प्रतिभा, जोश और योगदान को गंभीरता से कितनी बार स्वीकार किया गया है? एक ओर जहां वेब जर्नलिस्ट दिन-रात मेहनत कर सरकार की योजनाओं को आमजन तक पहुँचाते हैं, वहीं दूसरी ओर उन्हें किसी भी प्रकार का मान-सम्मान, मंच या संवाद तक उपलब्ध नहीं होता। इससे बड़ा विरोधाभास क्या हो सकता है कि जिनसे आप खबरें लगवाते हैं, लिंक मंगवाते हैं, उनके अस्तित्व को ही पहचानने से कतराते हैं?
आज यह सवाल केवल सरकार और प्रशासन से नहीं, बल्कि स्वयं पत्रकार बिरादरी से भी है—क्या सिर्फ़ कॉपी-पेस्ट कर देने वाले पत्रकारों से पत्रकारिता जीवित रह सकती है? जब आप उन्हें एक दिशा, एक दृष्टिकोण, और रचनात्मकता के लिए स्थान नहीं देंगे तो वे भी केवल “पकी पकाई” यानी बनी बनाई प्रेस नोट पर ही भरोसा करेंगे। यही कार्य शैली आगे की पीढ़ी को भी प्रभावित करती है, और इस तरह पत्रकारिता की मौलिकता धीरे-धीरे मिटती जाती है।
आज ज़रूरत है कि वरिष्ठ पत्रकार, जिला प्रशासन, सूचना एवं जनसंपर्क विभाग और इस क्षेत्र से जुड़े तमाम जिम्मेदार लोग इस नवाचारशील पीढ़ी को गंभीरता से लें। यह सोचें कि कैसे उन्हें रिपोर्टिंग से आगे बढ़ाकर विश्लेषण, लेखन और डिजिटल प्रस्तुतिकरण का अवसर दिया जाए। वेब पत्रकारिता केवल खबर पहुंचाने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह विचार, विमर्श और समाज की आवाज बनने का माध्यम है। लेकिन जब तक इसमें रचनात्मकता और पहचान के लिए कोई मंच नहीं मिलेगा, तब तक यह क्षेत्र केवल लिंक भेजने और व्यूवर्स गिनने तक ही रह जाएगा।
और दुखद स्थिति तब बनती है जब वेब पत्रकारिता को लेकर यह रवैया सामने आता है: “हमने थोड़ी बुलाया था!” अगर नहीं बुलाया था, तो फिर प्रेस नोट क्यों भेजते हो? लिंक क्यों मंगवाते हो? यह लेने का भाव क्यों इतना प्रबल है, और देने का भाव क्यों इतना शिथिल?
जब आप उनसे सेवा लेते हैं, तो उन्हें सेवा का अवसर भी दीजिए—मंच पर, रिपोर्टिंग में, विश्लेषण में, और नीतिगत संवाद में। वेब मीडिया के लिए रचनात्मक प्रशिक्षण, ज़मीनी फील्ड विजिट्स और विशिष्ट संवाद कार्यक्रम शुरू होने चाहिए ताकि यह क्षेत्र केवल सूचनाओं का वाहक नहीं, बल्कि सोच और समाधान का वाहक भी बने।
यही सवाल अब समय से है, व्यवस्था से है और हम सबकी ज़िम्मेदारी से है।
आज यह विचार करने की ज़रूरत है कि क्या हम पत्रकारों को प्लेटफॉर्म पर बुलाने की नीति बनाएंगे या सिर्फ़ उनसे काम लेकर उन्हें भुला देने की रवायत को ही आगे बढ़ाएंगे?
क्या हम वेब पत्रकारिता को मात्र एक साधन समझेंगे या उसे पत्रकारिता के नवाचार और लोकतांत्रिक सशक्तिकरण का माध्यम बनाएंगे?
क्योंकि यदि आज हमने इस पीढ़ी को अवसर नहीं दिए, तो कल हमारी पत्रकारिता एक क्लिक में सूचना तो पहुंचा देगी—पर आत्मा विहीन, दृष्टि रहित और नीतिहीन बन जाएगी। आज ग्लोबल स्तर पर वेब पत्रकारिता की स्वीकार्यता है। तकनीकी सुलभता और सोशल मीडिया की पहुँच ने छोटे से छोटे पत्रकार को भी बड़ी भूमिका निभाने की ताक़त दी है। लेकिन जब तक स्थानीय स्तर पर प्रशासन और विभाग इस भावना को सम्मान नहीं देंगे, तब तक यह क्षेत्र ‘फॉरवर्ड जर्नलिज़्म’ से आगे नहीं बढ़ पाएगा। और आने वाले समय में जब कोई यह पूछेगा कि हमने इस क्षेत्र के लिए क्या किया, तो शायद कोई भी दावे के साथ यह नहीं कह पाएगा कि “हमने उन्हें अवसर दिया, पहचान दी, मार्गदर्शन दिया।”
इसलिए अब वक्त आ गया है—वेब पत्रकारिता को केवल इस्तेमाल करने का माध्यम नहीं, बल्कि अवसर देने का क्षेत्र भी बनाया जाए। उसे संवाद का, नवाचार का और नेतृत्व का मंच दिया जाए। तभी पत्रकारिता अपने सच्चे अर्थों में जनसेवा बन पाएगी। वरना लिंक भेजने की यह दौड़ पत्रकारों को तो थका ही रही है, पत्रकारिता की आत्मा को भी घायल कर रही है।
अब यह सवाल सिर्फ़ वेब पत्रकारों का नहीं, पूरे सिस्टम का है—क्या हम इस नवोन्मेष को सिर्फ़ इस्तेमाल करेंगे या उसे पहचान, अवसर और गरिमा भी देंगे?
Anand Acharya Editor KhabarExpress
President : Editor Association of News Portals Bikaner
निश्चित ही वेब पत्रकारों को भी इस दिशा में आत्ममंथन करना होगा कि वे केवल सूचना वाहक नहीं, बल्कि सूचना विश्लेषक और रचनात्मक प्रस्तोता भी हैं। यह सोचना कि सरकारी नुमाइंदों ने प्रेस नोट भेजा और हमने उसे हूबहू प्रकाशित कर लिंक सोशल मीडिया पर शेयर कर दिया—यह पत्रकारिता का सीमित और सतही स्वरूप है। हमें हर खबर को एक अवसर की तरह देखना चाहिए—उसके भीतर रचनात्मकता की संभावनाएं तलाशनी चाहिए, प्रस्तुति में भिन्नता लानी चाहिए, और सबसे अहम, यह परखनी चाहिए कि उस खबर में कही गई बातों की ज़मीनी हकीकत क्या है, उसके दावों की सच्चाई क्या है, और उसका असर जनमानस पर कितना पड़ा। पत्रकारिता की मूल भावना वही है—सच का संधान और जनहित की रक्षा। तकनीकी दृष्टि से भी यह बेहद जरूरी है कि खबर केवल कॉपी-पेस्ट न हो, वरना सर्च इंजन हमारी साइट को प्राथमिकता नहीं देता, बल्कि उसे कमज़ोर श्रेणी में डाल देता है। इससे न सिर्फ हमारी व्यूअरशिप प्रभावित होती है, बल्कि अगर हमने कभी कोई मौलिक, दमदार खबर भी की हो, तो वह भी इन तकनीकी खामियों की वजह से पीछे छूट जाती है। अतः यह ज़रूरी है कि हर खबर विश्लेषण की प्रक्रिया से गुज़रे—उसकी भाषा, तकनीक, संदर्भ, आँकड़े, और यथार्थ को समेटते हुए वह एक प्रामाणिक दस्तावेज़ के रूप में उभरे—जैसा कि हम परंपरागत प्रिंट मीडिया में देखते आए हैं। यही वेब पत्रकारिता की विश्वसनीयता और गरिमा का मार्ग है।
The silent agony of web journalism: Is identity established just by sending links?
Don't limit web journalism to just sending links: Whose responsibility is it?