बिन दुल्हन के लौटी बारात व दुल्हा
गाजे-बाजे से अपने बारात लेकर दुल्हनियां के यहां पहुंचे
बीकानेर, सभी रस्मों के साथ अपनी बारात लेकर दुल्हे राजा गाजे-बाजे से अपने बारात लेकर दुल्हनियां के यहां पहुंचे, लेकिन दुल्हे और बारातियों के स्वागत सरकार के बाद भी दुल्हनियां नही मिली तो बिन दुल्हन के ही लौट आए दुल्हे राजा, इस स्थिति से जहां गुस्सा और झगडा हो सकता है वरन् वहां न तो बरातियों को क्रोध था और ना ही माथे पर कोई सिकन, यहां तक कि अगले वर्ष फिर दूल्हे को लेकर आने के साथ बाराती अपने-अपने घरों को लौट गए। यह नजारा समाने आया होली के दिन। जब दशकों पुरानी परम्परा के अनुसार पुष्करणा समाज की हर्ष जाति के युवक विषणुरूप में दुल्हा बनकर समाज की व्यास जाति के घरों के समक्ष बारातियों को लेकर ब्याहने हेतु पंहुचा। परम्परा के अनुसार व्यास व दम्माणी जाति के लगभग 14 घरों के समक्ष दूल्हे को पोखने की रस्म की गई। बारातियों का आदर-सत्कार भी किया गया। दूल्हा बना गोपाल हर्ष हर्ष-व्यास जाति की परम्परा के अनुसार दूल्हा बनकर धुलण्डी के दिन बारातियों के साथ निकला। धुलण्डी के दिन बारात के साथ विवाह गीतों के गायन व पोखने की रस्म को देख हर कोई रूकने को मजबूर हो रहे थे। समाज सेवी बाल नारायण हर्ष के अनुसार लगभग तीन शताब्दी से अधिक समय पूर्व हर्ष-व्यास जाति के बीच हुए एक विवाद तथा बाद में हुए समझौते तथा प्रेम के प्रतीक के रूप में प्रतिवर्ष हर्ष जाति के कुवांरे युवक को दूल्हा बनाकर व्यास जाति के घरों के समक्ष ले जाया जाता है। यहां दूल्हे को पोखेन की रस्मों के बाद दूल्हा पुनः हर्षो के चौक में आ जाता है। समाजसेवी हीरा लाल हर्ष के अनुसार धुलण्डी के दिन बारात की यह परम्परा अनूठी, अलबेली होने के साथ आपसी प्रेम, भाईचारे की प्रतीक है। सामाजिक एकता की मिसाल के रूप में यह परम्परा दशकों से मधुर संबंधों को बनाऐं रखने में कारगर भी बनी हुई है।
क्या है यह परम्परा जाने इस के बारे मे और